Friday, March 18, 2011

रंगमंच

जीवन क्या है?
सोचता हूँ मैं
पूछता हूँ मैं
अपने आप से
ढूँढता हूँ किताबों में
मगर, नहीं मिलता कहीं
उत्तर
जो दे सके संतोष.

कोई बताता है जीवन को
बिना लगाम का पहिया
कोई पगडण्डी, कोई मझधार
और कोई बताता है, सिर्फ
चलने का नाम है जीवन.

पर मैं जब झांकता हूँ
अपने ही गिरेबाँ में
तो पाता हूँ
जीवन एक रंगमंच है
इसमें निभाता हूँ मैं
कई भूमिकाएं
दफ्तर में अलग
घर में अलग
समाज में अलग
और सपनो में भी अलग.

करता हूँ झूंठी तारीफ़ दूसरों की
झूंठी ही निंदा स्वयं की
ठहाका लगाकर हँसता हूँ
दूसरों के दुःख में
खुद के क्षणिक सुख में.

मेरा कोई साथी धावक जिसने
दौड़ना शुरू किया था मेरे साथ
अगर निकल जाताहै मुझसे आगे
तो मन ही मन नाखुश होता हूँ
पर जुबां पर शब्द लाता हूँ....वाह!

दफ्तर में भी खैलता हूँ मैं
कई भूमिकाएं
काम का नाटक करता हूँ
जूनियर्स पर चिल्लाता हूँ
सीनियर्स की हाँ में हाँ मिलाता हूँ
दूसरों के काम का श्रेय खुद ले लेता हूँ
अपनी गलती दूसरों पर थोप देता हूँ.

झूंठा हंसता हूँ
झूंठा ही डांटता  हूँ
झूंठा ही प्यार दिखाता हूँ
श्वेत वस्त्र पहन
झूंठी शालीनता दर्शाता हूँ.

कहीं नहीं दिखता मेरा असली चेहरा
उसे मैं वक्त और स्थिति के मुखौटे से ढँक लेता हूँ
मेरी इच्छाएं अनंत हैं,
मेरा अपनी वस्तुओं से नहीं भरता जी
दूसरों की भी हड़प लेना चाहता हूँ.

नहीं चाहते हुए भी करना पड़ता है यह सब
शायद संसार भी यही चाहता है
इसीलिये मैं नहीं मानता खुद को अपराधी
दोष दूसरों पर मढ़ने का हो चुका हूँ आदी.

अगर ऐसे झूंठ, छलावों और आडम्बरों
का ही नाम जीवन है
तो इससे तो भला,
कोई रंगमंच..!!!